संकृति नामक राजा के दो पुत्र थे, एक का नाम था गुरु और दूसरे का रंति देव । रंतिदेव बड़े ही प्रतापी राजा हुए । इनकी न्यायशीलता, दयालुता, धर्मपरायणता और त्याग की ख्याति तीनों लोकों में फैल गयी । रंतिदेव ने गरीबों को दु:खी देखकर अपना सर्वस्व दान कर डाला । इसके बाद वे किसी तरह कठिनता से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । पर उन्हें जो कुछ मिलता था उसे स्वयं भूखे रहने पर भी वे गरीबों में बांट दिया करते थे । इस प्रकार राजा सर्वथा निर्धन होकर सपरिवार अत्यंत कष्ट सहने लगे ।
एक समय पूरे अड़तालीस दिन तक राजा को भोजन को कौन कहे, जल भी पीने को नहीं मिला । भूख - प्यास से पीड़ित बलहीन राजा का शरीर कांपने लगा । अंत में उनचासवें दिन प्रात:काल राजा को घी, खीर, हलवा और जल मिला । अड़तालीस दिन के लगातार अनशन से राजा परिवार सहित बड़े ही दुर्बल हो गये थे । सबके शरीर कांप रहे थे ।
रोटी की कीमत भूखा मनुष्य ही जानता है । जिसके सामने मेवे - मिष्ठानों के ढेर आगे से आगे लगे रहते हैं, उसे गरीबों के भूखे पेट की ज्वाला का क्या पता । रंति देव भोजन करना ही चाहते थे कि एक ब्राह्मण अतिथि आ गया । करोड़ रूपयों में से नाम के लिए लाख रुपए दान करना बड़ा सहज है, परंतु भूखे पेट का अन्न दान करना बड़ा कठिन कार्य है । पर सर्वत्र हरि को व्याप्त देखने वाले भक्त रंतिदेव ने वह अन्न आदर से श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणरूप अतिथि नारायण को बांट दिया । ब्राह्मण भोजन करके तृप्त होकर चला गया ।
उसके बाद राजा बचा हुआ अन्न परिवार को बांटकर खाना ही चाहते थे कि एक शुद्र अतिथि ने पदार्पण किया । राजा ने भगवान श्रीहरि का स्मरण करते हुए बचा हुआ अन्न उस दरिद्र नारायण को भेंट कर दिया । इतने में ही कई कुत्तों को साथ लिए एक और मनुष्य अतिथि होकर वहां आया और कहने लगा - ‘राजन ! मेरे ये कुत्ते और मैं भूखा हूं, भोजन दीजिए ।’
हरिभक्त राजा ने उसका भी सत्कार किया और आदरपूर्वक बचा हुआ सारा अन्न कुत्तों सहित उस अतिथि भगवान के समर्पण कर उसे प्रणाम किया । अब एक मनुष्य की प्यास बुढ सके - केवल इतना सा जल बच रहा था । राजा उसको पीना ही चाहते थे कि अकस्मात एक चाण्डाल ने आकर दीन स्वर से कहा - ‘महाराज ! मैं बहुत ही थका हुआ हूं, मुझ अपवित्र मनुष्य को पीने के लिए थोड़ा सा जल दीजिए ।’
उस चाण्डाल के दीन वचन सुनकर और उसे थका हुआ जानकर राजा को बड़ी दया आयी और उन्होंने ये अमृतमय वचन कहे -
‘मैं परमात्मा से अणिमा आदि आठ सिद्धियों से युक्त उत्तम गति या मुक्ति नहीं चाहता, मैं केवल यहीं चाहता हूं कि मैं ही सब प्राणियों के अंत:करण में स्तित होकर उनका दु:ख भोग करूं, जिससे उन लोगों का दु:ख दूर हो जाएं ।’
‘इस मनुष्य के प्राण जल बिना निकल रहे हैं, यह प्राणरक्षा के लिए मुझसे दीन होकर जल मांग रहा है, इसको यह जल देने से मेरे भूख, प्यास, थकावट, चक्कर, दीनता, क्लांति, शोक, विषाद और मोह आदि सब मिट जाएंगे ।’
इतना कहकर स्वाबाविक दयालु राजा रंतिदेव ने स्वयं प्यास के मारे मृतप्राय रहने पर भी उस चाम्डाल को वह जल आदर और प्रसन्नतापूर्वक दे दिया । ये हैं भक्त के लक्षण !
फल की कामना करनेवालों को फल देनेवाले त्रिभुवननाथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही महाराज रंतुदेव की परीक्षा लेने के लिए माया के द्वारा क्रमश: ब्राह्मणादि रूप धरकर आये थे । अब राजा का धैर्य और उसकी भक्ति देखकर वे परम प्रसन्न हो गये और उन्होंने अपना अपना यथार्थ रूप धारण कर राजा को दर्शन दिया ।
एक समय पूरे अड़तालीस दिन तक राजा को भोजन को कौन कहे, जल भी पीने को नहीं मिला । भूख - प्यास से पीड़ित बलहीन राजा का शरीर कांपने लगा । अंत में उनचासवें दिन प्रात:काल राजा को घी, खीर, हलवा और जल मिला । अड़तालीस दिन के लगातार अनशन से राजा परिवार सहित बड़े ही दुर्बल हो गये थे । सबके शरीर कांप रहे थे ।
रोटी की कीमत भूखा मनुष्य ही जानता है । जिसके सामने मेवे - मिष्ठानों के ढेर आगे से आगे लगे रहते हैं, उसे गरीबों के भूखे पेट की ज्वाला का क्या पता । रंति देव भोजन करना ही चाहते थे कि एक ब्राह्मण अतिथि आ गया । करोड़ रूपयों में से नाम के लिए लाख रुपए दान करना बड़ा सहज है, परंतु भूखे पेट का अन्न दान करना बड़ा कठिन कार्य है । पर सर्वत्र हरि को व्याप्त देखने वाले भक्त रंतिदेव ने वह अन्न आदर से श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणरूप अतिथि नारायण को बांट दिया । ब्राह्मण भोजन करके तृप्त होकर चला गया ।
उसके बाद राजा बचा हुआ अन्न परिवार को बांटकर खाना ही चाहते थे कि एक शुद्र अतिथि ने पदार्पण किया । राजा ने भगवान श्रीहरि का स्मरण करते हुए बचा हुआ अन्न उस दरिद्र नारायण को भेंट कर दिया । इतने में ही कई कुत्तों को साथ लिए एक और मनुष्य अतिथि होकर वहां आया और कहने लगा - ‘राजन ! मेरे ये कुत्ते और मैं भूखा हूं, भोजन दीजिए ।’
हरिभक्त राजा ने उसका भी सत्कार किया और आदरपूर्वक बचा हुआ सारा अन्न कुत्तों सहित उस अतिथि भगवान के समर्पण कर उसे प्रणाम किया । अब एक मनुष्य की प्यास बुढ सके - केवल इतना सा जल बच रहा था । राजा उसको पीना ही चाहते थे कि अकस्मात एक चाण्डाल ने आकर दीन स्वर से कहा - ‘महाराज ! मैं बहुत ही थका हुआ हूं, मुझ अपवित्र मनुष्य को पीने के लिए थोड़ा सा जल दीजिए ।’
उस चाण्डाल के दीन वचन सुनकर और उसे थका हुआ जानकर राजा को बड़ी दया आयी और उन्होंने ये अमृतमय वचन कहे -
‘मैं परमात्मा से अणिमा आदि आठ सिद्धियों से युक्त उत्तम गति या मुक्ति नहीं चाहता, मैं केवल यहीं चाहता हूं कि मैं ही सब प्राणियों के अंत:करण में स्तित होकर उनका दु:ख भोग करूं, जिससे उन लोगों का दु:ख दूर हो जाएं ।’
‘इस मनुष्य के प्राण जल बिना निकल रहे हैं, यह प्राणरक्षा के लिए मुझसे दीन होकर जल मांग रहा है, इसको यह जल देने से मेरे भूख, प्यास, थकावट, चक्कर, दीनता, क्लांति, शोक, विषाद और मोह आदि सब मिट जाएंगे ।’
इतना कहकर स्वाबाविक दयालु राजा रंतिदेव ने स्वयं प्यास के मारे मृतप्राय रहने पर भी उस चाम्डाल को वह जल आदर और प्रसन्नतापूर्वक दे दिया । ये हैं भक्त के लक्षण !
फल की कामना करनेवालों को फल देनेवाले त्रिभुवननाथ ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही महाराज रंतुदेव की परीक्षा लेने के लिए माया के द्वारा क्रमश: ब्राह्मणादि रूप धरकर आये थे । अब राजा का धैर्य और उसकी भक्ति देखकर वे परम प्रसन्न हो गये और उन्होंने अपना अपना यथार्थ रूप धारण कर राजा को दर्शन दिया ।
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